हिंदी साहित्य भारत के विशाल जनमानस का एक बहुत बड़ा भाग है। किन्तु आधुनिक हिंदी साहित्य (विशेषकर खड़ी बोली) सौ वर्ष से अधिक पुराना नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से इसके व्याकरण और बोलचाल के तरीके में बहुत बदलाव आया है। अब भी हिंदी साहित्य अवधी, बृजभाषा, मैथिली, आदि की पुरातन बोलियों से उपज कर निरंतर नए प्रयोग कर रहा है। क्या हिंदी साहित्य का अपना विशेष स्थान है, या उर्दू अथवा हिंदुस्तानी भाषाओं के होने से इसमें कोई विशेषता नहीं रही है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि भारतीय सभ्यता को बनाने में उसके साहित्य का अहम योगदान रहा है। क्या हिंदी साहित्य भी अन्य भारतीय भाषाओं की भांति भारत के नवनिर्माण में कोई योगदान कर सकता है? यह दूसरा प्रासंगिक प्रश्न है।
परीक्षित सिंह का कविता संग्रह ‘स्वयं से परिचय’ आधुनिक भारतीय साहित्य में एक नए प्रकार का अन्वेषण है। यह पुरातन ही नहीं आधुनिक भी है, छंदिक भी है तो मुक्त भी, आदर्शवादी भी है तो रहस्यमय भी, प्रयोगवादी भी है तो आध्यात्मिक भी। यह हृदय और मन को ही संतुष्ट नहीं करता, बल्कि कहीं उन गहराईयों को भी छू लेता है जिन्हें हम आत्मिक या चैत्य पौरुषिक कह सकते हैं। इसमें एक नए पद्य का उद्घोष है जिसमे गूढ़तम बातें हास्य के हल्केपन और सखा भाव की सरलता से कही गईं हैं।
परीक्षित सिंह ने रचनात्मकता की एक ऐसी नींव रखी है जिसका आने वाले पीढ़ी के कवि अधिक से अधिक लाभ उठा सकेंगे। उन्होंने शब्द और श्लेष में अर्थ और भाव के सूक्ष्म प्रयोग किये हैं, और भक्ति काव्य को पुनः प्रेरणा और सृजन की ऊर्जा से भर दिया है। उनके गहनतम दर्शन की इस भेंट ने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी है।
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