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लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन

सनातन धर्म पर हो रहे इस आक्रमण का वास्तविक रूप क्या है? क्या हम इसके पीछे कि मानसिकता को समझ सकते है?

वह केवल स्टालिन जूनियर ही नहीं है जिसने इस बार लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। ऐसे कई अन्य लोग हैं जो हिंदू धर्म और इसकी तथाकथित सामाजिक ‘ बुराइयों’ के विरोध में उग्र रहे हैं और इसके विनाश के लिए चिल्लाते रहे हैं। स्वर भिन्न हो सकते हैं, कटाक्ष से लेकर स्पष्ट अहंकार तक, लेकिन भाव हमेशा एक ही रहा है— हिंदू धर्म एक पथभ्रष्ट धर्म है। और उन्होंने यह लक्ष्मण रेखा सौ बार पार की है, और सौ बार हमने इसे स्वीकार किया है, क्षमा भी किया है, और संभवतः हमेशा शक्ति के आधार पर नहीं। पर अब? यह शिशुपाल के 101 वे प्रहार के समान है। और आज जन्माष्टमी है, जिस दिन हम श्री कृष्ण के मानव काल में अवतरण का उत्सव मनाते हैं।

आज तक, 262 प्रतिष्ठित व्यक्तिओं ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा है जिसमे स्टालिन की टिप्पणियों पर विशेष रूप से ध्यान देने की माँग की गयी है। बहुतों ने बिना शर्त क्षमायाचना की माँग की है। पर क्या इस सब से वास्तव में कुछ बदलाव होगा? यह रोग बहुत गहरा है। हमें पहले मूल तत्वों पर ध्यान देना होगा। क्या, या किसका, है यह ‘ सनातन धर्म’  जिस पर यह लोग आक्रमण कर रहें है? वह ‘ सनातन धर्म’ जिससे यह लोग इतनी प्रबलता से घृणा करते है और जिस पर आक्रमण करते है केवल एक ‘ नाम- मात्र’ है, एक सुशील शब्द मात्र, उस हिंदू धर्म के लिए जिसे वह समझ नहीं सकते, और निश्चित रूप से यह वेद और उपनिषद्, महाभारत और रामायण का सनातन धर्म नहीं है। वह ‘ सनातन धर्म’ इनके अधिकार क्षेत्र से कहीं अधिक परे है। जो यह लोग देखते हैं और जिस पर आक्रमण करते हैं, वह उनकी स्थूल इंद्रियों और उनकी मानसिकता की कल्पित, सीमित एवं खंडित ‘ वास्तविकता’ है। सनातन धर्म के मौलिक सत्यों को जानने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं के अविकसित राक्षसी रूप से कुछ अधिक सूक्ष्म, अधिक परिष्कृत बनने की आवश्यकता है। स्मरण रहे, सनातन धर्म के दृष्टिकोण से, राक्षस वह कुरूप पुरुष नहीं है जिसे हम बाल पुस्तकों के चित्रों में देखते है, वह असुर का प्रतिरूप है— एक विशालकाय अहंकार, घमंड और क्षुद्र मानसिकता वाले नीच लोगों की सोच समझ कर की गई हिंसा। और यह भी स्मरण रहे, राक्षस के लिए, आमतौर से, किसी भी तर्क या चेतना का कोई महत्व नहीं होता। राक्षस का ‘ धर्म’ है— उकसाना, भ्रमित करना, भटकाना और भंग करना।

और वह लोग सनातन धर्म पर आक्रमण इसलिए नहीं करते क्योंकि वह उसे समझते हैं— और इसलिए उससे घृणा करते हैं— बल्कि इस लिये क्योंकि वह उसे समझ नहीं सकते। यह असुर का पुराना गुण है। वह सब जिसकी उन्हें समझ नहीं है, जिसे वह समझ नहीं सकते, जो स्पष्ट रूप से उनकी समझ से परे है— उस पर आक्रमण करना और उसके विनाश का प्रयास करना।

इसलिए, वह लोग किसी एक धार्मिक प्रथा या सामाजिक परंपरा को लेते हैं— उदाहरण स्वरूप, जाति व्यवस्था— और उस पर जो भी उनके विचार के अनुसार सनातन धर्म है, उसे थोप देते हैं। फिर वह धर्म की निंदा करते है— या ठीक से कहें तो, जो उनकी धर्म की समझ या नासमझ है, उसकी निंदा करते— और उसके पश्चात धर्म के विनाश की माँग करते है क्योंकि “ वह असमानता को जन्म देता है” । पहले तो, वह बिलकुल भी कोई प्रयास नहीं करते, उस धर्म को समझने का, जिसका वह अपमान करते हैं और जिस पर आक्रमण करते हैं। उन्हें सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों और मूल्यों, उसके दर्शन, उसके विश्व- दृष्टिकोण की कोई भी समझ नहीं है, ना ही यह समझ है कि सनातन धर्म किस प्रकार से इस सब को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं में परिवर्तित एवं संयोजित करने का प्रयास करता है।

और उनके ज्ञान और समझ में इस मूलभूत अंतर के कारण, स्पष्ट रूप से वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रथाओं को पुराने समय से समझने में या उनका पुनर्निर्माण करने में असमर्थ है और उन्हें उस रूप में ही देख सकते है जैसे की वह वर्तमान में हैं: रीति- रिवाज और प्रथाएँ जो पीढ़ियों से चली आ रही सामाजिक और मानसिक गतिशीलता के अनुसार विकसित या अविकसित हुई हैं। यही कारण है की कोई भी धर्म, समाज, व्यवस्था— त्रुटिपूर्ण रीति- रिवाज और अनुचित प्रथाओं से परे नहीं है। दूसरे शब्दों में, वह लोग एक परंपरा पर ध्यान देते है, उसके व्यापक और गहरे मानवीय या सामाजिक सन्दर्भ को समझे बिना।

यह बौद्धिक आलस्य है, संभवतः अपने आप में हानि रहित, परंतु जब इसे राष्ट्रीय राजनैतिक चर्चा में लाया जाता है तो यह हानिकारक और उपद्रवी है। क्योंकि तब, यह एक नैतिक मुद्दा बन जाता है।

अनुवाद: समीर गुगलानी 

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