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ved, ek bimb

वेद महासागर हैं। सूक्ष्म व सघन ज्ञान के।  और यह ज्ञान का सागर पूरी मानवजाति की विरासत है।

कदाचित वेद के वर्णन का मेरे पास यही सबसे उत्तम रूपक है।  यह विशाल, बहुआयामी श्रुति जिसके बृहद दर्शन में सब कुछ समा जाता है। प्रत्येक क्षण इस सागर के रंग बदलते रहते हैं। गहन नील से हरित वर्ण, आसमानी से बैंगनी, नारंगी से सुनहरे। संध्या से प्रातः ऐसा लगता है इनके रंगों से उत्पन्न होते हैं। 

और प्रत्येक वर्ण जानने, समझने, अनुभव करने की विधा।

एक सतरंगी प्रदर्शन है, इनका वाचन व उच्चारण। बहते हुए, फैलते हुए, प्रतिबिंबित रंग, जो सूर्य के प्रकाश का विस्फोट व तरंगें हैं।  चाहे उथली खाड़ियां हों, या तट पर सागर की उत्तल लहरें, चाहें अथाह गहराइयों में डुबकी लगाने का प्रयास हो या खुले क्षितिजहीन विस्तार में भ्रमण।

और वेद स्वयं ही कई प्रकार के सागरों का बखान करते हैं। सलिलं अप्रकेतम अचेतन का सागर है जिससे जीवन का उद्विकास होता है। महो अर्णः हमारे मानस के ऊपर प्रकाश और ज्ञान का वह सागर है जिस तक हम सब योग द्वारा उठ सकते हैं। समुद्र से अर्थ है वह स्थान जहाँ सभी जल निकाय आकर मिलते हैं और सागर से भाव है बृहद और अनंत चित्त का जो वरुण देव का गुण है। समुद्र से तात्पर्य है परमात्मा के विराट अस्तित्व का इंगन और सरिताओं से अर्थ चित्त की व्यक्तिगत या विभिन्न रूपों में गति।

ऐसा बहुत कुछ है जो हम समझ नहीं पाए। कितनी ही बार इन मन्त्रों को केवल रूढ़ि समझ कर तुच्छ मान लिया गया।  या मीमांसकों द्वारा इन्हें केवल कर्मकाण्ड बताया गया। या इनसे आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत या ऐतिहासिक विवरण निकाले गए। ताकि हमें भान हो कि घोड़ों पर लैस आक्रांता किस प्रकार इस भूमि पर टिड्डियों की तरह पिल पड़े थे।

किन्तु वेद तो सदा से हमारी दीवारों से ऊपर उठ कर सभी सीमाओं का अंत करते रहे हैं। चाहे वे सीमाएँ हमारे पूर्वाग्रहों की हों या नासमझी कीं।

और सभी पंथ, दर्शन, धर्म, संस्कृतियाँ केवल उनमें बहती धाराएँ ही हैं।

उस युग कीं जिसमें इन ऋकों की रचना हुई थी हमारे अचेतन के प्रतीकों का उद्भव हुआ था। वे प्रतीक आज भी हमारे आधुनिक जीवन में अनायास ही कहीं से भी प्रकट हो जाते हैं. शायद इसलिए कि वे हमारे सामूहिक अचेतन Collective Unconscious के छिपे आर्किटाइप Archetype या छिपे चिन्ह हैं। और वे हमारे चित्त में अस्तित्व के विज्ञान से प्रकट होते हैं।

कम से कम तीन दशकों के अध्ययन के बाद मैं केवल विनम्रता से यह ही कह सकता हूँ। कि मैंने कठिनाई से इनके उथले तटों पर थोड़ी चहल कदमी की है। कुछ शंख इधर उधर से उठा लिए। और कुछ चित्र खींच लिए। किन्तु हर बार जब इनके ऊपर से कोई पर्दा गिरता है तो एक नई गहराई उजागर होती है। और केवल यह अचरज शेष रहता है कि अभी कितना कुछ समझना बाकी है।

ये कैसे कवि थे जिन्होंने काव्य और छंद का इतना परिमार्जन किया। प्रतीकों और मन्त्रों को एक संग जुटकर ऐसी विशाल संहिता की रचना करना महान उपलब्धि है जो शायद वेद के बाद इस स्तर पर किसी भी सभ्यता में संभव नहीं हो पाई।

इस प्रकार के उच्चतम साहित्य की संरचना करना, जिसमें इस तरह अत्यंत ही विकसित लय और संकेतात्मकता का उपयोग किया गया हो दर्शाता है कि ऐसी कोई कुंजी उनके पास थी जिसे समझना हमारे लिए आवश्यक है। ऋषियों के अनुसार वेद अपौरुषेय हैं। इससे क्या अर्थ? कोई भी प्रत्येक महान साहित्य जब जन्म लेता है तो कवि या रचनाकार अदृश्य हो जाता है। किन्तु वेद में इस रचना की क्रिया को जागृत अवस्था में निरंतर रूप देने की विधि वैदिक ऋषियों ने हमें दी। और जब वे कहते हैं कि ये मन्त्र परम व्योम से आए हैं तो इससे भाव है मन से परे चित्त की उच्चतम अवस्था से जहाँ ऋषि या योगी अपनी आध्यात्मिक शक्ति से ऊपर उठ उन प्रकाश की तरंगों को देख या सुन पाते थे।  इसी श्रवण के कारण वेद को श्रुति का नाम दिया गया और इसी दर्शन के कारण ऋषि को मन्त्र दृष्टा कहा गया।

आज भी हम उनकी दक्षता और प्रतिभा पर अचरज करते हैं। और आज भी उनके काव्य का उच्च अनुवाद हमसे दूसरी भाषाओँ में उस मूल स्तर पर संभव नहीं हो सका है। 

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